शिमला : एक फंतासी / श्रीनिवास श्रीकांत
शहर
बर्फ़
और देवदार
सन्नाटे में अस्त होता समय
न हवा
न घर
न किसी आहट का एहसास
टिकी शून्य में
सिर्फ़ एक खिड़की उदास
मेरे व अंधेरे के दरमियान
आना नहीं है अब किसी को
मगर दहलीज़ रहती है
बर्फ़ में हमेशा प्रतीक्षातुर
पिछले बरस थे मृणाल
और कस्तूरे भी
भुने मांस,शराब और कहकहों के
बीच
अबके मगर जल रहा
चरबी का एक दिया
पकड़ने कीचन में
चूड़ियों की आहट
लपकता है खिड़की से
अंधेरे का यतिहाथ
कितना दूभर है बर्फ़ों में
करना बर्दाश्त
दफ़्न हुए इस शहर को
जिसकी फ़िज़ाओं में कैद हैं
अब भी
मृत किलकारियां
दुम हिलाते कुत्तों की बारातें
प्लेटों की ख़नक
आधी आधी रात को
कुली खींचते
पैदल-गाड़ियां
लौटती ग्रीन रूमों से
धचके खाती साहबों की सवारियां
उठता नहीं अब शोर
चिमनियों से
उठता है शोर
उठता है धुआँ
बजते नहीं गज़र मुहानों पर
चलती है आकाश को
तराशती हुई हवा
धंसती हैं इमारतें
सरकती है ज़मेन
गुज़रता है ज़हन की पेचीदगी से
दिन
दफ़्तर
घर
और कहवों के बीचा
अपने को दोहराता है
समय
बच्चे नहीं करते
इंतज़ार