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एकाकी दोनों (कविता) / स्नेहमयी चौधरी

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चांदनी का एक टुकड़ा

कल रात जाने कब,

जाने कैसे, आ बैठा

खिड़की के पास वाली मेज़ पर सहसा।


उस अंधेरे में, अकेले में

मुझे पास पाकर मौन काँपा

थिर हुआ फिर;

मैंने दोनों हाथों पर

टेक दिया माथा।


अब तक

सर पटकने वाली

ऐंठन की व्याकुलता

बिखर कर चेहरों को

कर चुकी थी विकृत।

धीरे-धीरे सरक कर

उस प्रकाश-पुंज ने आगे बढ़

मुझको पूरा-का-पूरा छा लिया।


एकाकी दोनों ने जिस दर्द की पीड़ा सही,

उससे गलित, द्रवित हो

दोनों हो चुके थे एक।