भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाके लिए घर आई घिघाय / बिहारी
Kavita Kosh से
जाके लिए घर आई घिघाय, करी मनुहारि उती तुम गाढ़ी
आजु लखैं उहिं जात उतै, न रही सुरत्यौ उर यौं रति बाढ़ी
ता छिन तैं तिहिं भाँति अजौं, न हलै न चलै बिधि की लसी काढ़ी
वाहि गँवा छिनु वाही गली तिनु, वैसैहीं चाह (बै) वैसेही ठाढ़ी ।।