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पीठ करते हुए / विजय कुमार देव

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हम सुनते हैं- पीठ से
पीठ की ओर करते हुए पीठ
बहसियाते हैं , अपरिचय को जीते हैं
भोंकते हैं शब्द तेज़/ हथियार से तेज़
फिर भी,
न भोंथरे होते हैं- शब्द / न हथियार / न आदमी।

हम जान पाते हैं
पीठ करने का मकसद
फिर भी सुरक्षित है -पीठ
ठोंकते हुए पीठ
सुनते है- तारीफशास्त्र
और फेर लेते हैं -पीठ
सुनते हुए पीठ से
घनघनाता है पेट
हुतात्माओं की मानिंद
चौंकता है शरीर/बोलती है आँखे
सुनने लगती है नाक
और/ सूंघने लगते है कान।

हम समझते हैं
कुछ सच है
पीठ पर पड़ती धौल
तो टूटती हैं एड़ियाँ
चटखते हैं तलुए
शास्त्रीय धुन
गूँजने लगती है सायरन की तरह
पेट के गढ़े से
या पीठ की नली से

हमें मालूम है
एक ही बात है
पेट ओर पीठ में

कान उखाड़कर
पेट पाले जाएँगे
ताकि, दुनिया का
अहम् मसला हल हो
तुम फर्क कर सको
पेट ओर पीठ में

सभी को
ज़रूरी होगा सुनना अनवरत
चीकट कालौंची ख़बरें
पेट से न सही गले से
भर दो गला उनका
जो भूखे है सुनने को ।
तुम्हारा
भूगोल बदलेगा ।
ज़रूरी है बदलना
या फिर टैक्स लगाया जएगा
वर्ना
तुम्हारी एक सही हरकत
फना कर देगी-दुनिया की
सबसे हसीन ओर जिंदादिल कविता ।

हम उसे बचाना चाहते हैं
इसलिए सोचो
तुम सब पीठ से सुनना सीखो
सिफ उस हसीन कविता के लिए
क्योकि
जब सब कुछ तबाह हो जायेगा
वह अकेली रच सकती है सब कुछ
बस,
तुम चाकू से तेज़
धारदार शब्दों को
गिरवी रख दो
कुछ सार्थक शब्द
कुछ सार्थक संवाद करो
मैं बचा लूँगा
पूरी ताकत लगाकर
अपनी उर्वरा
भोली-कविता।