भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कामुकों का गाँव बेवा का शबाब / विनोद तिवारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:42, 29 दिसम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


कामुकों का गाँव बेवा का शबाब
क्या सफ़ाई आपको अब दें जनाब

झूठ हर मौसम में फलता-फूलता
और सच का हर समय ख़ाना ख़राब

जिसने जब चाहा बजाया चल दिया
ज़िंदगी अपनी थी ग़ैरों का रबाब

आँधियों का ज़ोर तिनकों का वहम
कह रहे हैं हम करेंगे इन्क़लाब

वह कँटीली झाड़ियों का गुल्म था
हमने सोचा था वहाँ होंगे गुलाब