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निवेदन / संतरण / महेन्द्र भटनागर

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फूल जो मुरझा रहे
जग-वल्लरी पर

अधखिले

कारण उसी का खोजता हूँ !

हे प्राण !
मुझको माफ़ करना
यदि तुम्हारे गीत कुछ दिन
मैं न गाऊँ !
स्वर्ण आभा-सा
सुवासित तन तुम्हारा देख
अनदेखा करूँ,
छवि पर न मोहित हो
तनिक भी मुसकराऊँ !

फूल जब मुरझा रहे
वसुधा बनी विधवा
सुमुखि !
फिर अर्थ क्या शृंगार का,
पग-नूपुरों की गूँजती झंकार का ?

हर फूल खिलने दो ज़रा,
डालियों पर प्यार हिलने दो ज़रा !