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अब नहीं / संतरण / महेन्द्र भटनागर

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अब नहीं मेरे गगन पर
चाँद निकलेगा !

बीत जाएगी तुम्हारी याद में सारी उमर
पार करनी है अँधेरी और एकाकी डगर ;

किस तरह अवसन्न जीवन
बोझ सँभलेगा !

शांत, बेबस, मूक, निष्फल खो उमंगों को हृदय
चिर उदासी मग्न, निर्धन, खो तरंगों को हृदय

अब नहीं जीवन-जलधि में
ज्वार मचलेगा !

नेह रंजित, हर्ष पूरित, इंद्रधनुषी फाग को
उपवनों में गूँजते रस-सिक्त पंचम-राग को

क्या पता था, इस तरह
प्रारब्ध निगलेगा !