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भोर / जिजीविषा / महेन्द्र भटनागर
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क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?
स्तब्धता, लगता कि सोया भोर,
देखती आँखें क्षितिज की ओर,
सृष्टि का बदला नहीं क्यों वेष ?
क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?
दे रही ऊषा नहीं वरदान,
मौन विहगों का अभी तो गान,
उठ पड़े, पर, जाग मेरे प्राण,
सुन रहा जीवन नया संदेश !
क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?
स्वप्न से मुझको नहीं है मोह,
कर्मरत मानव-हृदय की टोह,
जागता मेरा रहे नव देश !
क्या अभी भी रात्रि है कुछ शेष ?