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रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 1

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लेखक: रामधारी सिंह "दिनकर"

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रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल ,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल .
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह ,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .

अङगार-वृष्टि पा धधक उठ जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बध्द मनुज का वश ,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .

भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण ,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !
'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे ,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे .

काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण .
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमडा भुज का सागर अथाह .

गरजा अशङक हो कर्ण, ''शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकडता हूं .

बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .

इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड ग़ये सामने धर्मराज ,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .
लेकिन, दोनों का विषम युध्द, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .

भागे वे रण को छोड, क़र्ण ने झपट दौडक़र गहा ग्रीव ,
कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं .

''हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में ,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड क़ी झपटों से खेला करिये .''

भाग विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,
सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया .'

समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण ,
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया .

कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में ,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में .
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .

देखता रहा सब श्लय, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,
''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?''

''संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है ,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है .''

हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,
क्षयमान्, क्षनिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .

''पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से ,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से ;
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है ,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है .

''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सध्दर्म निभाने को ,
सबके समेत पङिकल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?