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रात्रि से रात्रि तक / पंकज पराशर

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सूरज ढलते ही लपकती है
सिंगारदान की ओर
और घंटी बजते ही खोलकर दरवाज़ा
मधुशालीन पति का करती है स्वागत
व्योमबालाई हँसी के साथ
जल्दी-जल्दी थमाकर चाय का प्याला
घुस जाती है रसोई में
खाना बनाते बच्चों से बतियाते होमवर्क कराते हुए
खिलाकर बच्चों को पति को
फड़फड़ाती है रात भर कक्ष-कफ़स में तन-मन से घायल
 
जल्दी उठकर तड़के नाश्ता बनाती बच्चों को उठाती
स्कूल भेजकर पहुँचाती है पति के कक्ष में चाय
फ़ोन उठाती सब्जी चलाती हुई भागती है दरवाज़े तक
दूधवाले की पुकार पर
 
हर पुकार पर लौटती है स्त्री खामोश कहीं खोई हुई
 
जब तक सहेजती हुई सब कुछ लौटती है पति तक
हाथ में थाली लिए जलपान की
 
पति भूखे ही जा चुके होते हैं दफ़्तर
एक और दिन उसके जीवन में बन जाता है पहाड़
 
रोती जाती है काम करती जाती है पति के आने तक
मकान को घर बनाती हुई स्त्री
सूरज ढलते ही करने लगती है पुनः स्वयं को तैयार
व्योमबालाई हँसी के लिए