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यह वक़्त / समरकंद में बाबर / सुधीर सक्सेना

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कुछ भी
ऎतबार के काबिल नहीं रहा
न कहा गया,
न सुना गया,
और न लिखा गया

कुछ भी नहीं
जहाँ भरोसा कोहनी टिका सके,
कोई कोना नहीं,
जहाँ यकीन बैठ सके,
आलथी-पालथी मारकर

आसेतु हिमाचल
गड्ड्मड्ड हैं आँसू, क्रोध और हताशा
सब कुछ डूबा जा रहा है इस दुर्निवार समय में

एक तिनके की तलाश में
लगातार हिचकोले खा रहे हैं
पचासी करोड़ लोग।