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हवाएँ चुप नहीं रहती (कविता) / वेणु गोपाल

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हवाओं ने सरापा समझा
अंधेरे को। झूठ नहीं कहा था उसे। लेकिन

अंधेरे ने ग़लत समझा हवाओं को। क्योंकि
उजाले को
सच कहा था उन्होंने।

दिन था।
तो भी अंधेरा था। चंद कमरों में। चंद
जिस्मों में। चंद शब्दों में। चंद
वादों में। और चंद
भविष्यवाणियों में। घना होता हुआ। लेकिन

हवाओं ने इनकी नहीं
बल्कि सन्नाट सड़कों और उनसे जुड़े
गुंजान आंगनों-मैदानों और खेतों की
बात कही थी। जहाँ रात थी।
तो भी उजाला था। हवाएँ

जहाँ-जहाँ से सनसनाती गुज़री थीं
लौटकर
वहाँ-वहाँ के संस्मरण सुनाए थे। आज भी
सुनाती हैं। हवाएँ

कभी चुप नहीं रहतीं। आगामी सुबह
के रूप-बखान में मुब्तिला
वे
इस वक़्त भी सक्रिय हैं। चंद
अटूट उम्मीदों में।

(रचनाकाल : 23.01.1976)