भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रोज़मर्रा वही एक ख़बर / अश्वघोष

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:37, 3 जनवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोज़मर्रा वही इक ख़बर देखिए
अब तो पत्थर हुआ काँच-घर देखिए

सड़के चलने लगीं आदमी रुक गया
हो गया अपाहिज़ सफ़र देखिए

सारा आकाश अब इनके सीने में है
काटकर इनके परिन्दों के पर देखिए

मैं हकीकत न कह दूँ कहीं आपसे
मुझको खाता है हरदम ये डर देखिए
 
धूप आती है न इनमें, न ठंड़ी हवा
खिड़कियाँ हो गई बेअसर देखिए।