भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक गहरा दर्द / अश्वघोष
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:56, 3 जनवरी 2010 का अवतरण
एक गहरा दर्द छलता जा रहा है
आदमी का दम निकलता जा रहा है
आ रही है क्रांतियाँ बुल्ड़ोज़रों से
देश का नक्शा बदलता जा रहा है
हाथ उनके ख़ून में भीगे हुए हैं
फ़र्ज़ वहशत में बदलता जा रहा है
ग्रीष्म में भी चल रही ठंडी हवाएँ
चेतना का जिस्म गलता जा रहा है
ऐ मेरे हमराज़, बढ़कर रोक ले
रोशनी को तम निगलता जा रहा है