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दुख / बसंत त्रिपाठी
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एक खाली मैदान में
अकेले खेल रहे हों फुटबाल
या पर कटे परिन्दे की तरह
बचते-बचाते सड़क पर चल रहे हों
उम्मीदें सारी सूख जाएँ
जैसे गर्मी का पोखर
और सपने तक नोच कर ले जाए कोई
नींद से
रातें न कटती हों
न बीतती हों
रुलाई तक होंठों पर आने से घबराए
सही चीज़ों की शक्लें इतनी बदल चुकी हों
कि पहचान तक न पाएँ उन्हें
हम भयानक ख़्वाब के बाद हड़बड़ाकर उठें
और पानी का जग सिरहाने से गायब हो।