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अतीत के द्वार पर / रामधारी सिंह "दिनकर"

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'जय हो’, खोलो अजिर-द्वार
मेरे अतीत ओ अभिमानी!
बाहर खड़ी लिये नीराजन
कब से भावों की रानी!
बहुत बार भग्नावशेष पर
अक्षत-फूल बिखेर चुकी;
खँडहर में आरती जलाकर
रो--रो तुमको टेर चुकी।
वर्तमान का आज निमंत्रण,
देह धरो, आगे आओ;
ग्रहण करो आकार देवता!
यह पूजा-प्रसाद पाओ।
शिला नहीं, चैतन्य मूर्ति पर
तिलक लगाने मैं आई;
वर्तमान की समर-दूतिका,
तुम्हें जगाने मैं आई।
कह दो निज अस्तमित विभा से,
तम का हृदय विदीर्ण करे;
होकर उदित पुनः वसुधा पर
स्वर्ण-मरीचि प्रकीर्ण करे।
अंकित है इतिहास पत्थरों
पर जिनके अभियानों का
चरण - चरण पर चिह्न यहाँ
मिलता जिनके बलिदानों का;
गुंजित जिनके विजय-नाद से
हवा आज भी बोल रही;
जिनके पदाघात से कम्पित
धरा अभी तक डोल रही।
कह दो उनसे जगा, कि उनकी
ध्वजा धूल में सोती है;
सिंहासन है शून्य, सिद्धि
उनकी विधवा--सी रोती है।
रथ है रिक्त, करच्युत धनु है,
छिन्न मुकुट शोभाशाली,
खँडहर में क्या धरा, पड़े,
करते वे जिसकी रखवाली?
जीवित है इतिहास किसी--विधि
वीर मगध बलशाली का,
केवल नाम शेष है उनके
नालन्दा, वैशाली का।
हिमगह्वर में किसी सिंह का
आज मन्द्र हुंकार नहीं,
सीमा पर बजनेवाले घौंसों
की अब धुंधकार नहीं!
बुझी शौर्य की शिखा, हाय,
वह गौरव - ज्योति मलीन हुई,
कह दो उनसे जगा, कि उनकी
वसुधा वीर - विहीन हुई।
बुझा धर्म का दीप, भुवन में
छाया तिमिर अहंकारी;
हमीं नहीं खोजते, खोजती
उसे आज दुनिया सारी।