धनी दे रहे सकल सर्वस्व,
तुम्हें इतिहास दे रहा मान;
सहस्रों बलशाली शार्दूल
चरण पर चढ़ा रहे हैं प्राण।
दौड़ती हुई तुम्हारी ओर
जा रहीं नदियाँ विकल, अधीर
करोड़ों आँखें पगली हुईं,
ध्यान में झलक उठी तस्वीर।
पटल जैसे-जैसे उठ रहा,
फैलता जाता है भूडोल।
हिमालय रजत-कोष ले खड़ा
हिन्द-सागर ले खड़ा प्रवाल,
देश के दरवाजे पर रोज
खड़ी होती ऊषा ले माल।
कि जानें तुम आओ किस रोज
बझाते नूतन रुद्र-विषाण,
किरण के रथ पर हो आसीन
लिये मुट्ठी में स्वर्ण-विहान।
स्वर्ग जो हाथों को है दूर,
खेलता उससे भी मन लुब्ध।
धनी देते जिसको सर्वस्व,
चढ़ाने बली जिसे निज प्राण,
उसी का लेकर पावन नाम
कलम बोती है अपने गान।
गान, जिसके भीतर संतप्त
जाति का जलता है आकाश;
उबलते गरल, द्रोह, प्रतिशोध
दर्प से बलता है विश्वास।
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