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साक्षात्‍कार / दिनेश कुमार शुक्ल

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क्वांर की शुरुआत,
वर्षा और शरद की
संधि के दिन थे
खिल रहे थे
खाइयों के
भरे पानी में बघौले,
घास में खेई हुई सोई हुई
पगडंडियां थीं और
आने लगे थे खंजन

दुर्ग के प्राचीर सी
ऊंची खड़ी थी ज्वार
खेतों में,
और भी उस सघनता को
सघन करती हुई फैली थीं
उरद की मूंग की बेलें
घना तिलहन

रबी की चल रही
तैयारियां थीं
लोग समतल कर रहे थे खेत

मेड़ पर मैं जा रहा था,
ज्वार के प्राचीर
दोनों ओर थे मेरे,
घनी फसलों की सघनता का
हरा था अंधकार
चल रहा था मैं
करोड़ों साल के प्राचीन
वन में,
सनसनाती घास में
जादू भरा था

बढ़ा मैं आगे
अचानक देखता हूं
हंस रहा है
चांदनी की झील सा
एक स्वच्छ समतल खेत
उसे चारों ओर से
घेरे हुए थे ज्वार --
अरहर के घने प्राचीर

इस तरह औचक
दिखी वह खुली धरती
एक पल के लिये
जैसे जांघ कदली की
निरावृत हो गई हो --
दिख गई हो स्नान करती
पद्मिनी की
दीप्त कांचन देह

पूर्णिमा की चांदनी उस खेत में
कोई बिछा कर छुप गया था
हड़बड़ी में छोड़कर
वेणी अमावस की

या फिर वधिक कोई
छुप गया था छोड़कर
तलवार प्राक्तन कालिमा की
लपलपाती
कलुष कल्मष की भयानक चंद्रहास
बहुत नीली और काली
कौस्तुभ मणि की
चमकती करधनी रह-रह
फिसलती
रात की स्फटिक जंघा पर --
कालिमा की
तरलता पर
दृष्टि बिल्कुल टिक न पाती थी

सारी कलाएं काल की
गुंजलक में बांधे
सामने पसरा पड़ा था
काल
बनकर व्याल

सृष्टि का सारा तमस
मुझे अपनी ओर रह-रह
खींचता था
खींचती जैसे अंधेरी
कंदरा अभिशप्त --
पराजय की गंध
भरती जा रही थी,
दस दिशाओं में
समर्पण था समर्पण
ढह रहे थे पांव

और मेरी उपस्थिति के ताप से
गलने लगा वह दृश्य
लहरें चांदनी की झील में
उठने लगीं
जैसे उबलता दूध

ताप से मेरे
पिघल कर बह चली
वह प्राक्तन तलवार,
बह चली
वह कृष्ण मणियों की
चमकती करधनी
लपलपाती हुई अपनी जीभ
तमसा नदी सी उन्मद
कभी पूरब कभी पश्चिम
कभी उत्तर कभी दक्षिण

क्वार की उस चांदनी में
बर्फ बनकर
झर रही थी कालिमा,
हिनहिना कर गा रही थीं*
मानवेतर योनियों की स्त्रियां
लताओं की तरह
छाए जा रहे थे
तार लोहे के कटीले
और
उल्टी थालियां बज रही थीं
चारों दिशाओं में निरन्तर
झनझनाहट झनझनाहट झनझनाहट**

सनसनाता भर रहा था
कालियादह
कान में मन में हृदय में



  • जहरीले सांप के काटने पर आवाज नकसुरी होने लगती है।
    • सांप काटने पर गांवों में सर्प वैद्य/ओझा इत्यादि को बुलाने के लिए उल्टी

    थालियां बजाई जाती हैं।


देर तक बहती रही
तमसा कि कालिन्दी --
बह रहा था कालकूट
मेरे पांवों को
मेरे अस्तित्व को छूता डुबाता
बह रहा था
वह प्रलम्बित सरीसृप-क्षण

बीत कितने युग गये पर
मृत्यु की सम्मोहिनी सी
वह नदी बहती रही सर-सर

छुप गया था चन्द्रमा
छुप गये थे देवता सब
छुप गया था समय
रात की कटि से
खिसक जब
कृष्ण मणियों की
चमकती करधनी
मृत्यु बनकर बह रही थी

और फिर
वह सरसराहट
दूर तारों के परे
जब जा चुकी थी --
चन्द्रमा निकला
समय ने सांस ली
तरबतर मैं था पसीने में
कि सारे सिन्धु के जल में
खड़ा था मैं चमत्कृत

और तबसे
आज का दिन है
क मुझको
नीम कड़वी नहीं लगती,*

और यह कटुता
मुझे संसार की
अब हर परिस्थिति में
मधुरता खोज लेने की
नई विधियां सिखाती है।



  • जहरीला सांप काटने पर आदमी को नीम की पत्ती कड़वी नहीं नगती।