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साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ४

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नील से मुहँ पोत मेरा सर्व,
कर रही वात्सल्य का तू गर्व!
खर मँगा, वाहन वही अनुरूप,
देख लें सब--है यही वह भूप!
राज्य, क्यों माँ, राज्य, केवल राज्य?
न्याय-धर्म-स्नेह, तीनों त्याज्य!
सब करें अब से भरत की भीति,
राजमाता केकयी की नीति--
स्वार्थ ही ध्रुव-धर्म हो सब ठौर!
क्यों न माँ? भाई, न बाप, न और!
आज मैं हूँ कोसलाधिप धन्य,
गा, विरुद गा, कौन मुझ-सा अन्य?
कौन हा! मुझ-सा पतित-अतिपाप?
हो गया वर ही जिसे अभिशाप!
तू अड़ी थी राज्य ही के अर्थ,
तो न था तेरा तनय असमर्थ।
और भू पर था न कोसल मात्र,
छत्र-भागी है कहीं भी क्षात्र।
क्षत्रियों के चाप-कोटि-समक्ष,
लोक में है कौन दुर्लभ लक्ष?