पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ ८
हँसने लगे कुसुम कानन के, देख चित्र-सा एक महान,
विकच उठीं कलियाँ डालों में, निरख मैथिली की मुस्कान॥
कौन कौन से फूल खिले हैं, उन्हें गिनाने लगा समीर,
एक एक कर गुन गुन करके, जुड़ आई भौंरों की भीर॥
नाटक के इस नये दृश्य के, दर्शक थे द्विज लोग वहाँ,
करते थे शाखासनस्थ वे, समधुप रस का भोग वहाँ।
झट अभिनयारम्भ करने को, कोलाहल भी करते थे,
पंचवटी की रंगभूमि को, प्रिय भावों से भरते थे॥
सीता ने भी उस रमणी को, देखा लक्ष्मण को देखा,
फिर दोनों के बीच खींच दी, एक अपूर्व हास्य-रेखा।
"देवर, तुम कैसे निर्दय हो, घर आये जन का अपमान,
किसके पर-नर तुम, उसके जो, चाहे तुमको प्राण-समान?
याचक को निराश करने में, हो सकती है लाचारी,
किन्तु नहीं आई है आश्रय, लेने को यह सुकुमारी।
देने ही आई है तुमको, निज सर्वस्व बिना संकोच,
देने में कार्पण्य तुम्हें हो, तो लेने में क्या है सोच?"
उनके अरुण चरण-पद्मों में, झुक लक्ष्मण ने किया प्रणाम,
आशीर्वाद दिया सीता ने--"हों सब सफल तुम्हारे काम!"
और कहा--"सब बातें मैंने, सुनी नहीं तुम रखना याद;
कब से चलता है बोलो यह, नूतन शुक-रम्भा-संवाद?"