मन का कोना-कोना छाना
तुम्ही हर ज़गह थे, मैं न था
रक्त-कणों में भी खोजा था
मैं बिन अब क्या खोना, पाना
तुम मुझ मैं, तो मैं भी हूँगा
शायद मैं अन्ज़ान बना हूँ
या फिर मैं नादान बना हूँ
साथ तुम्हारा, पा ही लूँगा
क्यों व्याकुल हूँ मैं को पाने
मैं होगा तो रचना होगी
जो जीवन का सपना होगी
फिर खोना, पाना को माने
मैं प्यार को सुविस्मृत करता
फिर निखार कर अर्पित करता
रचनाकाल : 25 जून 1989