भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर नियराया / ओम प्रभाकर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:43, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण ("घर नियराया / ओम प्रभाकर" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
जैसे-जैसे घर नियराया।
बाहर बापू बैठे दीखे
लिए उम्र की बोझिल घड़ियाँ।
भीतर अम्माँ रोटी करतीं
लेकिन जलती नहीं लकड़ियाँ।
कैसा है यह दृश्य कटखना
मैं तन से मन तक घबराया।
दिखा तुम्हारा चेहरा ऐसे
जैसे छाया कमल-कोष की।
आँगन की देहरी पर बैठी
लिए बुनाई थालपोश की।
मेरी आँखें जुड़ी रह गईं
बोलों में सावन लहराया।