भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यह समय झरता हुआ / ओम प्रभाकर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:52, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण ("यह समय झरता हुआ / ओम प्रभाकर" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
उफ़, यह समय
झरता हुआ।
कल के बेडौल हाथों
हुए ख़ुद से त्रस्त।
कहीं कोई है
कि हममें कँपकँपी भरता हुआ।
बनते हुए ही टूटते हैं हम
पठारी नदी के तट से।
हम विवश हैं फोड़ने को
माथ अपना निजी चौखट से।
एक कोई है
हमें हर क्षण ग़लत करता हुआ।