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बाबू! औरत होना पाप है पाप / रवीन्द्र प्रभात

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सालों बाद देखा है
धनपतिया को आज
धूप की तमतमाहट से कहीं ज्यादा

उग्र तेवर में
भीतर-भीतर धुआँती
जीवन के एक महासमर के लिए तैयार ।
महज दो-तीन सालों में
कितना बदल गई है वह

भड़कीले चटख रंगों की साडी में भी
अब नहीं दमकता उसका गोरा रंग
बर्फ़ के गोले की तरह
हो चले हैं बाल
और झुर्रियाँ
मरुस्थल के समान बेतरतीब ।

पहले-
बसंत के नव-विकसित पीताभ
नरगिस के फूलों की तरह
निर्मल दिखती थी धनपतिया
हहास बांधकर दौड़ती
बागमती की तरह अल्हड़

आसमानी रंग की साडी में
उमगती जब कभी
पास आती थी
बाँध जाती थी देह का पोर-पोर
अपनी शरारती चितवन से ।

अब पूछने पर
कहती है धनपतिया-
बाबू !
औरत होना पाप है पाप....

कहते-कहते लाल हो जाता है चेहरा
तन आती है नसें
और आँचल में मुँह छुपाकर
बिफ़रने लगती है वह
नारी के धैर्य की
टूटती सीमाओं के भीतर
आकार ले रही
रणचंडी की तरह !