चुनाव जब भी आता है दोस्त !
सजते हैं वन्दनवार हमारे भी द्वार पर
और हम-
माटी के लोथड़े की मानिंद
खड़े हो जाते हैं भावुकता की चाक पर
करते हैं बसब्री से इंतज़ार
किसी के आने का .....!
कोई न कोई अवश्य आता है मेरे दोस्त
और ढाल जाता है हमें -
अपनी इच्छाओं के अनुरूप
अपना मतलब साधते हुए
सब्ज़बाग दिखाकर .....!
उसके जाने के बाद -
टूटते चले जाते हैं हम
अन्दर हीं अन्दर
और फूटते चले जाते हैं थाप-दर-थाप
अनहद ढोल की तरह .....
यह सोचते हुए कि-
"वो आएँगे बेशक किसी न किसी दिन , अभी ज़िंदगी की तमन्ना है बाक़ी....!"