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लौटा है शीत जब से गाँव / रवीन्द्र प्रभात

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प्रीति भई बावरी,
देख घटा साँवरी,
है धरती पे उसके न पाँव,
लौटा है शीत जब से गाँव।

सुरमई उजालों में चुम्बन ले घासों को,
बेध रही हौले से गर्म-गर्म साँसों को,
बहकी है पुरवाई, ले-ले के अंगडाई
गेहूँ की बालियों से छुए कुहासों को,

चाँद की चांदनी,
खो गई रागिनी,
आई प्राची से सिंदूरी छाँव,
लौटा है शीत जबसे गाँव ।

बाँसों के झुरमुट से किरणें सजी-सँवरी,
निकली है स्वागत में गाती हुई ठुमरी,
देहरी के भीतर से झाँक रही दुल्हनिया
साजन की यादों में खोई हुई गहरी,

शीत की भोर से,
धूप की डोर से,
सात फेरे लिए हं अलाव,
लौटा है शीत जबसे गाँव ।

मौसम की आँखों में महुए-सी ताज़गी,
दिखती है खुल करके धूप की नाराज़गी,
गड़ की डली खाके सोया है देर तक
मतवाला सूरज है अलसाया आज भी,

गा रही गीत री,
बाँटती प्रीत री,
बंजारन गली-गली-ठाँव,
लौटा है शीत जबसे गाँव ।