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गीत मन का दर्द सहलाते नहीं / विनोद तिवारी
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आपके घर रौशनी से भर गए हैं
मेरी बस्ती के उजाले मर गए हैं
आपके बेख़ौफ़ तीखे क़हक़हों से
देखिए कुछ लोग कितना डर गए हैं
हम कि सदियों से यूँ ही नंगे बदन हैं
जिस्म के अहसासात जैसे मर गए हैं
लूट कर खेतोम को कुछ चालाक डाकू
सारी तोहमत मौसमों पर धर गए हैं
सुख लदा छकड़ों में बस आता ही होगा
गाँव की मीटिंग में में वे कहकर गए हैं