भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हादसों की बात पर / कमलेश भट्ट 'कमल'

Kavita Kosh से
Dr.jagdishvyom (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 15:27, 13 जनवरी 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: कमलेश भट्ट 'कमल'

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

हादसों की बात पर अल्फाज़ गूँगे हो गए

मुल्क में अब हर तरफ हालात ऐसे हो गए।


ठीक है, हमको नहीं मंज़िल मिली तो क्या हुआ

इस बहाने ही सही, कुछ तो तज़ुरबे हो गए।


पाठशाला प्रेम की कोई नहीं खोली गई

नफ़रतों के, हर शहर, घर-घर मदरसे हो गए।


जब बहुत दिन तक नहीं कोई खब़र आई-गई

आप हमसे, आपसे हम बेखब़र-से हो गए।


ढेर-सी अच्छाइयों का ज़िक्र तक आया नहीं

इक बुराई के, शहर में खूब चर्चे हो गए।


रोशनी अब भी नहीं बिल्कुल मरी है, मानिए

बस हुआ ये है धुँधलके और गहरे हो गए।