भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रकृति की ओर. / भरत प्रसाद

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:16, 18 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुना है-
ममता के स्वभाववश
माता की छाती से
झर-झर दूध छलकता है

मैं तो अल्हड़ बचपन से
झुकी हुई सांवली घटाओं में
धारासार दूध बरसता हुआ
देखता चला आ रहा हूँ।

आत्मविभोर कर देने वाला
यह विस्मय
मुझे प्रकृति के प्रति
अथाह कृतज्ञता से
भर देता है।