कौतुहल / संध्या पेडणेकर
माँ ने बक्से में रखा था 
वह बाहर झांकता भी 
तो माँ फुत्कारती 
तब पलटी मार कर वह 
मिची आँखों से रेंगते 
अपने सहोदरों पर गिर पड़ता 
यह लेकिन ज्यादा समय 
तक नहीं चल सका 
एक दिन उसकी छलांग 
माँ के पीछे उसे 
बक्से से बाहर ले आयी 
डर कर वह 
खुद फुफकारा
शरीर उसका अकड़कर 
धनुष सा हो गया 
कन्धों के दोनों छोर आपस में मिल गए
लेकिन धीरे धीरे उसे पता चला 
अपनी बौखलाहट के अलावा 
यहाँ सब कुछ सामान्य है 
तो धीरे धीरे 
उसकी गोटी जैसी गोल आँखों में 
कौतुहल जगा 
शरीर की कमान ढीली पड़ी 
कीलों की तरह खड़े हुए बाल 
शरीर से फिर चिपक गए
उभरी पूँछ नीचे आयी
उसकी मोटाई भी कम हुई 
आस पास उसने जो देखा 
उससे उसका दिल भर आया
पेट जमीन से टिका कर 
वह धीमे से पसर गया
हलकी खड़क की भी उसके कान टोह लेते
और आँखें 
लप लप कर हर दृश्य को 
दिल पर उकेर लेती
लटपट करते चारों पैरों से 
जमीन पर  जोर देकर 
वह उठा 
लटपट करती चाल से 
दस कदम आगे बढ़ा 
फिर अचानक डर के मारे 
नन्ही नन्ही कुदानें मारता 
फिर बक्से की ओर लपका आया 
अनजाना डर 
अनजान स्थितियों से डर 
बक्से से चिपक कर घिसटते हुए 
उसने चारों पैर फैलाए 
और फिर तन कर खड़े होकर टोह ली 
कहाँ क्या है? कुछ भी तो नहीं!
पीछे वाले पैर मोड़ कर 
पूँछ को व्यवस्थित लपेट कर   
वह बैठ गया 
विचार मग्न सा 
निर्णय नहीं हो पा रहा था
उत्तेजना के कारण अब उसे 
झपकी आयी  
बैठे बैठे वह झूलने लगा 
तभी ............
तभी अचानक 
गर्दन से पकड़कर उसे किसीने उठाया 
हलकी गुर्राहट..
हवा में उछला 
फिर वह बक्से में था 
झिडकी और ममता भरी 
गुर्राहट से कान गूँज रहे थे 
लार से भरी जीभ के दुलार ने 
उसे भिगा दिया था
	
	