भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जायज-नाजायज / संध्या पेडणेकर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:31, 1 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपना है तो
जायज़ है
कभी स्वाभिमान है,
कभी
अस्मिता है
कभी और कुछ
सकारात्मक
जिसका पोषण करना
ज़रूरी है
किसी और का हो
तो
ग़ैरज़रूरी है,
नाजायज़ है
बेमतलब है
अकारण है
इसलिए
येन-केन-प्रकारेण
अपनी इज़्ज़त गिरवी रखकर ही सही
उसे कुचलना चाहिए
कहीं उसका अहंकार
अपने अहंकार के आगे
भारी पड़ा तो?
दिखावटी टुच्ची लड़ाई
सच ने जीत ली तो?
नाक कट जाएगी,
स्वाभिमान मिट जाएगा
इसलिए
नाजायज़ अहंकार को कुचलने के लिए
जायज़ अहंकार को बिछ जाना होगा
बेआबरू का सैलाब बह जाने देना होगा

हो सके तो
उसी सैलाब में
उसके अहंकार को
कुचलना होगा
दफ़नाना होग