भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ठहरो / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:16, 3 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ठहरो!
हिल रहा है अभी नन्हा हाथ
मोड़ के ख़त्म होने तक
पीछा करती है
उसकी नन्हीं आँखें मुस्कुराहट में डूबी।
ठहरो!

मुस्कुराहाट में छिपी कसक को ले जाओ अपने साथ
बनी नहीं अभी ऎसी सड़क
ख़त्म न हो जो मोड़ पर।
ठहरो!

रोना है मुझे जी भर
रातों के सपनों को याद कर।
ठहरो!
कन्धे पर सिर रख करनी हैं जी भर बातें।