भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जुज़ क़ैस और कोई न आया / ग़ालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जुज़<ref>सिवाय</ref> क़ैस और कोई न आया बरूए-कार<ref>सामने, काम के लिए</ref>
सहरा मगर बतंगिए-चश्मे-हुसूद<ref>ईर्ष्यालुओं की आँख की तरह तंग</ref> था

आशुफ़्तगी<ref>परेशानी</ref> ने नक़्श-सवैदा<ref>दिल के दाग़ का चिन्ह</ref> किया दुरुस्त
ज़ाहिर हुआ कि दाग़ का सरमाया दूद<ref>धुआं</ref> था

था ख़्वाब में ख़याल को तुझसे मुआ़मला
जब आँख खुल गई न ज़ियां<ref>हानि</ref> था न सूद था

लेता हूँ मकतबे-ग़मे-दिल<ref>दिल के ग़म की पाठशाला</ref> में सबक़े हनोज़<ref>अभी</ref>
लेकिन यही कि 'रफ़्त' -- 'गया', और 'बूद' -- था

ढांपा कफ़न ने दाग़े-अ़यूबे-बरहनगी<ref>नग्नता का दोष</ref>
मैं वर्ना हर लिबास में नंगे-वजूद<ref>अस्तित्व का कलंक</ref> था

तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन<ref>फ़रहाद-शीरीं का प्रेमी</ref> 'असद'
सरगश्ता-ए<ref>बंधा हुआ</ref> ख़ुमारे-रुसूम-ओ-क़यूद<ref>रीति-रिवाज</ref> था

शब्दार्थ
<references/>