भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ढाबा : आठ कविताएँ-7 / नीलेश रघुवंशी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 5 मार्च 2010 का अवतरण
वह वक़्त-बेवक़्त की बारिश
भीगते हुए सेंकी जिसमें हमने रोटियाँ
ग्राहक की जगह को पानी से बचाते भीग जाते थे हम पूरे के पूरे
भीगते हुए देखती माँ
खड़ी रहती दरवाज़े पर सूखे कपड़े लिए
हमारे गीले सिरों पर हाथ फेरते हुए
मन ही मन बुदबुदाती
आएगी अगली बारिश में सबके लिए बरसाती।