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कहीं नहीं पहुँचती / चंद्र रेखा ढडवाल

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कभी चमकती
अभी-अभी माँजे गए बासन-सी
सँवर जाती कभी बिस्तर पर एक भी
सिल्बत बिन बिछी चादर-की-सी
दोपहर की धूप में
सूखते कपड़ों सँग सूखती
अर्गनी पर टँगी धोती सँग झूलती
हँसती नन्हें के टूटे दस्तों के बीच में से
खिलखिलाती चुटकुला कहती गुड़िया की
बरबस रोकी मुस्कानों में
बतियाती घर के बोलने में
हँसने में हँसती
रोने में बिसूरती
सूरज-सी पहुँचती हर कोने अन्तर तक
होती पर-पल
घर-आँगन की
पर अपने होने से
कहीं नहीं होती
अपने को चीन्हती
कहीं नहीं पहुँचती