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जी ही लेती है/ चंद्र रेखा ढडवाल

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सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
 ***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कूच को बस
छू कर निकल जाती

पानी पर बनी लकीरें मिटाती
और भी
जी ही लेती है