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पुल भर मैं / चंद्र रेखा ढडवाल

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मैं मिली
तो भीतर का मरुस्थल
चेहरे पर पसर गया
भीगी ऋतुओं में सराबोर
मैं जिस पर बरसी
निशेष हो जाने तक


उग आई हरियाली
उसके और मेरे इर्द-गिर्द
पर रही बस
बिछती जाती हरी दूब ही
नहीं पहुँचती मेरे कन्धों तक
कि सहलाती मुझे
नहीं तनी माथे तक
कि छा लेती मुझे


वर्त्तमान सहेजे रखती तब भी
पकड़ में रखती भविष्य भी
पर बीत कर भी
कब बीतता है बीता हुआ
सामने आ खड़ा हुआ
हरियाई घास को रौंदते
सीधा उसे तकते हुए
थमाते हुए एक सिलसिला
जिससे पूर्णतया कटी हुई
कर्मयोगी कृष्ण की राधा-सी
दो छोरों की खाए पाटते.
(भारती का बोध महसूसती)
एक पुल भर मैं.