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ओबामा / अरुण देव

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पचास साल पहले मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने देखा था एक सपना
अलगाव की हथकड़ी भेदभाव की ज़ंजीरों में जकड़े
भौतिक सम्पन्नता के हहराते समुद्र में
निर्धनता के एकाकी द्वीप की तरह अपनी ही धरती पर निर्वासित
कालों का एक सपना
चिलचिलाती धूप में समानता और स्वतंत्रा के महकते
वसंत का सपना
एक ऐसा मरूद्यान जहाँ बच्चे रंग की चारदीवारी से मुक्त हों
और रंग नहीं कार्य दमके
कलह को भ्रातृत्व के राग में ढल जाने का सपना
जो अंततः अमेरिका का ही सपना था
बराक हुसैन ओबामा को क्या उस स्वप्न की याद है
कहते हैं ओबामा विचार नहीं
वह तो एक चेहरा है
एक ऐसा चेहरा जिससे जुड़ गई हैं कुछ अस्मितापरक आशाएँ
४२ श्वेत राष्ट्रपतियों के बाद एक अश्वेत को बैठाकर
अमेरिका अपने अपराध-बोध से बाहर निकल रहा है
अंततः ओबामा को एक बुश, क्लिन्टन या रीगन ही होना है
वह मार्टिन लूथर नहीं हो सकता
केन्या के उस सुदूर गाँव की रंगहीन शामों में
शायद ही कोई फ़र्क आए
जहाँ उसके नन्हें पैरों के निशान हैं
शायद ही कोई फ़र्क आए
विश्व में भर गए अमेरिकी धुएँ के कसैलेपन में
उसके अहम के अट्टहास में

इस नये चहरे से अमेरिका उतार रहा है अपनी थकान
बराक के कन्धे पर श्वेत अमेरिका का बोझ है