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झीनी चदरिया / अरुण देव
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चादर को मैली होने से बचाने के
कितने जतन थे सहाय बाबू के पास
देह पर बोझ न रहे यह सोच कर
मैल न जमने दिया मन में
कभी हबक कर नही बोला
कभी ठबक कर नही चले
गेह की देहरी से उठाते रहे प्यास से भरा लोटा
जब भी गए भूख से भरी थाली के पास
श्रम का पसीना पोंछ कर गए
कभी-कभी निकल आते ईर्ष्या-द्वेष के कील-काँटे
पैंट की जेब मे चला आता स्वार्थ
अहं की टाई को बार-बार ढीला करते
अधिकार के पेन को बहकने नही दिया
चादर को जस का तस लौटने का स्मरण था सहाय बाबू को
हालाँकि हबक कर बोले बिना कोई सुनता न था
ठबक कर न चलने में पीछे रह जाने का अपमान था
सहाय बाबू छड़ी से ओस की बूँदों को छूते
जैसे वह गोरख और कबीर के आँसू हों।