भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने / ग़ालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नुक्ताचीं<ref>गलतीयां निकालने वाली</ref> है, ग़म-ए-दिल उस को सुनाये न बने
क्या बने बात, जहाँ बात बनाये न बने

मैं बुलाता तो हूँ उस को, मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाये कुछ ऐसी, कि बिन आये न बने

खेल समझा है, कहीं छोड़ न दे भूल न जाये
काश! यूँ भी हो कि बिन मेरे सताये न बने

ग़ैर फिरता है, लिए यों तेरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है, तो छुपाये न बने

इस नज़ाकत<ref>कोमल स्वभाव</ref> का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आयें, तो उन्हें हाथ लगाये न बने

कह सके कौन कि ये जल्वागरी<ref>वैभव</ref> किसकी है
पर्दा छोड़ा है वो उसने कि उठाये न बने

मौत की राह न देखूँ, कि बिन आये न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ, तो बुलाये न बने

बोझ वो सर पे गिरा है कि उठाये न उठे
काम वो आन पड़ा है कि बनाये न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश "ग़ालिब"
कि लगाये न लगे और बुझाये न बने

शब्दार्थ
<references/>