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श्रद्धा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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रचनाकार: जयशंकर प्रसाद

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कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि

तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,

कर रहे निर्जन का चुपचाप

प्रभा की धारा से अभिषेक?


मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का

सुलझा हुआ रहस्य,

एक करुणामय सुंदर मौन

और चंचल मन का आलस्य"


सुना यह मनु ने मधु गुंजार

मधुकरी का-सा जब सानंद,

किये मुख नीचा कमल समान

प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद,


एक झटका-सा लगा सहर्ष,

निरखने लगे लुटे-से

कौन गा रहा यह सुंदर संगीत?

कुतुहल रह न सका फिर मौन।


और देखा वह सुंदर दृश्य

नयन का इद्रंजाल अभिराम,

कुसुम-वैभव में लता समान

चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।


हृदय की अनुकृति बाह्य उदार

एक लम्बी काया, उन्मुक्त

मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल,

सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त।


मसृण, गांधार देश के नील

रोम वाले मेषों के चर्म,

ढक रहे थे उसका वपु कांत

बन रहा था वह कोमल वर्म।


नील परिधान बीच सुकुमार

खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,

खिला हो ज्यों बिजली का फूल

मेघवन बीच गुलाबी रंग।


आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच

जब घिरते हों घन श्याम,

अरूण रवि-मंडल उनको भेद

दिखाई देता हो छविधाम।


या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग

फोड़ कर धधक रही हो कांत

एक ज्वालामुखी अचेत

माधवी रजनी में अश्रांत।


घिर रहे थे घुँघराले बाल अंस

अवलंबित मुख के पास,

नील घनशावक-से सुकुमार

सुधा भरने को विधु के पास।


और, उस पर वह मुसक्यान

रक्त किसलय पर ले विश्राम

अरुण की एक किरण अम्लान

अधिक अलसाई हो अभिराम।


नित्य-यौवन छवि से ही दीप्त

विश्व की करूण कामना मूर्ति,

स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण

प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।


ऊषा की पहिली लेखा कांत,

माधुरी से भीगी भर मोद,

मद भरी जैसे उठे सलज्ज

भोर की तारक-द्युति की गोद


कुसुम कानन अंचल में

मंद-पवन प्रेरित सौरभ साकार,

रचित, परमाणु-पराग-शरीर

खड़ा हो, ले मधु का आधार।


और, पडती हो उस पर शुभ्र नवल

मधु-राका मन की साध,

हँसी का मदविह्वल प्रतिबिंब

मधुरिमा खेला सदृश अबाध।


कहा मनु ने-"नभ धरणी बीच

बना जीचन रहस्य निरूपाय,

एक उल्का सा जलता भ्रांत,

शून्य में फिरता हूँ असहाय।


शैल निर्झर न बना हतभाग्य,

गल नहीं सका जो कि हिम-खंड,

दौड़ कर मिला न जलनिधि-अंक

आह वैसा ही हूँ पाषंड।


पहेली-सा जीवन है व्यस्त,

उसे सुलझाने का अभिमान

बताता है विस्मृति का मार्ग

चल रहा हूँ बनकर अनज़ान।


भूलता ही जाता दिन-रात

सजल अभिलाषा कलित अतीत,

बढ़ रहा तिमिर-गर्भ में

नित्य जीवन का यह संगीत।


क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत?

विवर में नील गगन के आज

वायु की भटकी एक तरंग,

शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़।


एक स्मृति का स्तूप अचेत,

ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब

और जड़ता की जीवन-राशि,

सफलता का संकलित विलंब।"


"कौन हो तुम बंसत के दूत

विरस पतझड़ में अति सुकुमार।

घन-तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मंद बयार।


नखत की आशा-किरण समान

हृदय के कोमल कवि की कांत-

कल्पना की लघु लहरी दिव्य

कर रही मानस-हलचल शांत"।


लगा कहने आगंतुक व्यक्ति

मिटाता उत्कंठा सविशेष,

दे रहा हो कोकिल सानंद

सुमन को ज्यों मधुमय संदेश।


"भरा था मन में नव उत्साह

सीख लूँ ललित कला का ज्ञान,

इधर रही गन्धर्वों के देश,

पिता की हूँ प्यारी संतान।


घूमने का मेरा अभ्यास बढ़ा था

मुक्त-व्योम-तल नित्य,

कुतूहल खोज़ रहा था,

व्यस्त हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।


दृष्टि जब जाती हिमगिरी ओर

प्रश्न करता मन अधिक अधीर,

धरा की यह सिकुडन भयभीत आह,

कैसी है? क्या है? पीर?


मधुरिमा में अपनी ही मौन

एक सोया संदेश महान,

सज़ग हो करता था संकेत,

चेतना मचल उठी अनजान।


बढ़ा मन और चले ये पैर,

शैल-मालाओं का श्रृंगार,

आँख की भूख मिटी यह देख

आह कितना सुंदर संभार।


एक दिन सहसा सिंधु अपार

लगा टकराने नद तल क्षुब्ध,

अकेला यह जीवन निरूपाय

आज़ तक घूम रहा विश्रब्ध।


यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न,

भूत-हित-रत किसका यह दान

इधर कोई है अभी सजीव,

हुआ ऐसा मन में अनुमान।