भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के / ग़ालिब

Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:43, 14 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ग़ैर लें महफ़िल में, बोसे<ref>चुम्बन</ref> जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब<ref>सूखे होंठ</ref> पैग़ाम<ref>संदेश</ref> के

ख़स्तगी<ref>थकावट,टूट-फूट</ref> का तुम से क्या शिकवा, कि ये
हथकंडे हैं चर्ख़े-नीली फ़ाम<ref>नीला आसमान</ref> के

ख़त लिखेंगे, गर्चे<ref>भले ही</ref> मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी ज़मज़म<ref>एक पवित्र ताल का पानी,</ref> पे मय और सुबह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-अहराम<ref>तीर्थ-यात्रा पर पहने जाने वाले पवित्र वस्त्र</ref> के

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े<ref>छल्ले,फन्दे </ref> हैं तुम्हारे दाम<ref>जाल</ref> के

शाह की है ग़ुस्ले-सेहत<ref>स्वास्थ्य-स्नान</ref> की ख़बर
देखिये, कब दिन फिरें हम्माम<ref>नहाने की जगह</ref>के

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के

शब्दार्थ
<references/>