भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आधी रात को / विद्याभूषण
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:45, 15 मार्च 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विद्याभूषण |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> आधी रात को शोर ज…)
आधी रात को
शोर जब थक कर निढाल सोता है
शहर का अजब हाल होता है।
सड़कें सुनसान और गलियाँ वीरान
हो जाती हैं।
नींद में ग़र्क है मेरा पड़ोस।
सन्नाटे को छींक तक नहीं आती
थकान की वसीयत ढोती है ख़ामोशी
उस वक़्त मुश्किल माहौल में
मेरी सपनीली आँखें
समय के बंद हो चुके दरवाज़ों के
अकस्मात खुलने की टोह लेती है।
तुम्हारी यादें कटीले रास्तों पर
क़वायद करती होती हैं
और बर्फ़ीली ख़ंदकों में
लुढ़क जाते हैं तमाम हिमालयी सुख।
काले सागर की सरहद पर
दुखों की पनडुब्बियों का सफ़र
नामालूम जारी रहता है।
हासिल दुश्वारी है, यही लाचारी है।