भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काम / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
Bhawnak2002 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 17:33, 6 फ़रवरी 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: जयशंकर प्रसाद

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


जागरण-लोक था भूल चला

स्वप्नों का सुख-संचार हुआ,

कौतुक सा बन मनु के मन का

वह सुंदर क्रीडागार हुआ।


था व्यक्ति सोचता आलस में

चेतना सजग रहती दुहरी,

कानों के कान खोल करके

सुनती थी कोई ध्वनि गहरीः-


"प्यासा हूँ, मैं अब प्यासा

संतुष्ट ओध से मैं न हुआ,

आया फिर भी वह चला गया

तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।


देवों की सृष्टि विलिन हुई

अनुशीलन में अनुदिन मेरे,

मेरा अतिविचार न बंद हुआ

उन्मत्त रहा सबको घेरे।


मेरी उपासना करते वे

मेरा संकेत विधान बना,

विस्तृत जो मोह रहा मेरा वह

देव-विलास-वितान तना।


मैं काम, रहा सहचर उनका

उनके विनोद का साधन था,

हँसता था हँसाता था

उनका मैं कृतिमय जीवन था।


जो आकर्षण बन हँसती थी

रति थी अनादि-वासना वही,

अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के

अंतर में उसकी चाह रही।


हम दोनों का अस्तित्व रहा

उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।

जिससे संसृति का बनता है

आकार रूपके नर्त्तन-सा।


उस प्रकृति-लता के यौवन में

उस पुष्पवती के माधव का-

मधु-हास हुआ था वह पहला

दो रूप मधुर जो ढाल सका।"


"वह मूल शक्ति उठ खडी हुई

अपने आलस का त्याग किये,

परमाणु बल सब दौड़ पडे

जिसका सुंदर अनुराग लिये।


कुंकुम का चूर्ण उडाते से

मिलने को गले ललकते से,

अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के

विद्युत्कण मिले झलकते से।


वह आकर्षण, वह मिलन हुआ

प्रारंभ माधुरी छाया में,

जिसको कहते सब सृष्टि,

बनी मतवाली माया में।