वासना / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
कालिमा धुलने लगी
घुलने लगा आलोक,
इसी निभृत अनंत में
बसने लगा अब लोक।
इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,
देख कर सब भूल जायें
दुख के अनुमान।
देख लो, ऊँचे शिखर का
व्योम-वुंबन-व्यस्त-
लौटना अंतिम किरण का
और होना अस्त।
चलो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,
साधना का राज।"
सृष्टि हँसने लगी
आँखों में खिला अनुराग,
राग-रंजित चंद्रिका थी,
उडा सुमन-पराग।
और हँसता था अतिथि
मनु का पकडकर हाथ,
चले दोनों स्वप्न-पत में,
स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निकुंज गह्वर
सब सुधा में स्नात,
सब मनाते एक उत्सव
जागरण की रात।
आ रही थी मदिर भीनी
माधवी की गंध,
पवन के घन घिरे पडते थे
बने मधु-अंध।
शिथिल अलसाई पडी
छाया निशा की कांत-
सो रही थी शिशिर कण की
सेज़ पर विश्रांत।
उसी झुरमुट में हृदय की
भावना थी भ्रांत,
जहाँ छाया सृजन करती
थी कुतूहल कांत।
कहा मनु ने "तुम्हें देखा
अतिथि कितनी बार,
किंतु इतने तो थे
तुम दबे छवि के भार
पूर्व-जन्म कहूँ कि था
स्पृहणीय मधुर अतीत,
गूँजते जब मदिर घन में
वासना के गीत।
भूल कर जिस दृश्य को
मैं बना आज अचेत,
वही कुछ सव्रीड,
सस्मित कर रहा संकेत।
"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"
यही सुदृढ विचार'
चेतना का परिधि
बनता घूम चक्राकार।
मधु बरसती विधु किरन
है काँपती सुकुमार?
पवन में है पुलक,
मथंर चल रहा मधु-भार।
तुम समीप, अधीर
इतने आज क्यों हैं प्राण?
छक रहा है किस सुरभी से
तृप्त होकर घ्राण?
आज क्यों संदेह होता
रूठने का व्यर्थ,
क्यों मनाना चाहता-
सा बन रहा था असमर्थ।
धमनियों में वेदना-
सा रक्त का संचार,
हृदय में है काँपती
धडकन, लिये लघु भार
चेतना रंगीन ज्वाला
परिधि में सांनद,
मानती-सी दिव्य-सुख
कुछ गा रही है छंद।