वासना / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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कालिमा धुलने लगी
घुलने लगा आलोक,
इसी निभृत अनंत में
बसने लगा अब लोक।
इस निशामुख की मनोहर
सुधामय मुसक्यान,
देख कर सब भूल जायें
दुख के अनुमान।
देख लो, ऊँचे शिखर का
व्योम-वुंबन-व्यस्त-
लौटना अंतिम किरण का
और होना अस्त।
चलो तो इस कौमुदी में
देख आवें आज,
प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,
साधना का राज।"
सृष्टि हँसने लगी
आँखों में खिला अनुराग,
राग-रंजित चंद्रिका थी,
उडा सुमन-पराग।
और हँसता था अतिथि
मनु का पकडकर हाथ,
चले दोनों स्वप्न-पत में,
स्नेह-संबल साथ।
देवदारु निकुंज गह्वर
सब सुधा में स्नात,
सब मनाते एक उत्सव
जागरण की रात।
आ रही थी मदिर भीनी
माधवी की गंध,
पवन के घन घिरे पडते थे
बने मधु-अंध।
शिथिल अलसाई पडी
छाया निशा की कांत-
सो रही थी शिशिर कण की
सेज़ पर विश्रांत।
उसी झुरमुट में हृदय की
भावना थी भ्रांत,
जहाँ छाया सृजन करती
थी कुतूहल कांत।
कहा मनु ने "तुम्हें देखा
अतिथि कितनी बार,
किंतु इतने तो थे
तुम दबे छवि के भार
पूर्व-जन्म कहूँ कि था
स्पृहणीय मधुर अतीत,
गूँजते जब मदिर घन में
वासना के गीत।
भूल कर जिस दृश्य को
मैं बना आज अचेत,
वही कुछ सव्रीड,
सस्मित कर रहा संकेत।
"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"
यही सुदृढ विचार'
चेतना का परिधि
बनता घूम चक्राकार।
मधु बरसती विधु किरन
है काँपती सुकुमार?
पवन में है पुलक,
मथंर चल रहा मधु-भार।
तुम समीप, अधीर
इतने आज क्यों हैं प्राण?
छक रहा है किस सुरभी से
तृप्त होकर घ्राण?
आज क्यों संदेह होता
रूठने का व्यर्थ,
क्यों मनाना चाहता-
सा बन रहा था असमर्थ।
धमनियों में वेदना-
सा रक्त का संचार,
हृदय में है काँपती
धडकन, लिये लघु भार
चेतना रंगीन ज्वाला
परिधि में सांनद,
मानती-सी दिव्य-सुख
कुछ गा रही है छंद।
अग्निकीट समान जलती
है भरी उत्साह,
और जीवित हैं,
न छाले हैं न उसमें वाह
कौन हो तुम-माया-
कहुक-सी साकार,
प्राण-सत्ता के मनोहर
भेद-सी सुकुमार
हृदय जिसकी कांत छया
में लिये निश्वास,
थके पथिक समान करता
व्यजन ग्लानि विनाश।"
श्याम-नभ में मधु-किरन-
सा फिर वही मृदु हास,
सिंधु की हिलकोर
दक्षिण का समीर-विलास
कुंज में गुंजरित
कोई मुकुल सा अव्यक्त-
लगा कहने अतिथि,
मनु थे सुन रहे अनुरक्त-
"यह अतृप्ति अधीर मन की,
क्षोभयुक्त उन्माद,
सखे तुमुल-तरंग-सा
उच्छवासमय संवाद।
मत कहो, पूछो न कुछ,
देखो न कैसी मौन,
विमल राका मूर्ति बन कर
स्तब्ध बैठा कौन
विभव मतवाली प्रकृति का
आवरण वह नील,
शिथिल है, जिस पर बिखरता
प्रचुर मंगल खील,
राशि-राशि नखत-कुसुम
की अर्चना अश्रांत
बिखरती है, तामरस
सुंदर चरण के प्रांत।"
मनु निखरने लगे
ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,
वह अनंत प्रगाढ
छाया फैलती अपरूप,
बरसता था मदिर कण-सा
स्वच्छ सतत अनंत,
मिलन का संगीत
होने लगा था श्रीमंत।
छूटती चिनगारियाँ
उत्तेजना उद्भ्रांत।
धधकती ज्वाला मधुर,
था वक्ष विकल अशांत।
वातचक्र समान कुछ
था बाँधता आवेश,
धैर्य का कुछ भी न
मनु के हृदय में था लेश।
कर पकड उन्मुक्त से
हो लगे कहने "आज,
देखता हूँ दूसरा कुछ
मधुरिमामय साज
वही छवि हाँ वही जैसे
किंतु क्या यह भूल?
रही विस्मृति-सिंधु में स्मृति-
नाव विकल अकूल
जन्म संगिनी एक थी
जो कामबाला नाम-
मधुर श्रद्धा था,
हमारे प्राण को विश्राम-
सतत मिलता था उसी से,
अरे जिसको फूल
दिया करते अर्ध में
मकरंद सुषमा-मूल
प्रलय मे भी बच रहे हम
फिर मिलन का मोद
रहा मिलने को बचा,
सूने जगत की गोद
ज्योत्स्ना सी निकल आई
पार कर नीहार,
प्रणय-विधु है खडा
नभ में लिये तारक हार
कुटिल कुतंक से बनाती
कालमाया जाल-
नीलिमा से नयन की
रचती तमिसा माल।
नींद-सी दुर्भेद्य तम की,
फेंकती यह दृष्टि,
स्वप्न-सी है बिखर जाती
हँसी की चल-सृष्टि।
हुई केंद्रीभूत-सी है
साधना की स्फूर्त्ति,
दृढ-सकल सुकुमारता में
रम्य नारी-मूर्त्ति
दिवाकर दिन या परिश्रम
का विकल विश्रांत
मैं पुरूष, शिशु सा भटकता
आज तक था भ्रांत।
चंद्र की विश्राम राका
बालिका-सी कांत,
विजयनी सी दीखती
तुम माधुरी-सी शांत।
पददलित सी थकी
व्रज्या ज्यों सा आक्रांत,
शस्य-श्यामल भूमि में
होती समाप्त अशांत।
आह वैसा ही हृदय का
बन रहा परिणाम,
पा रहा आज देकर
तुम्हीं से निज काम।