भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही / ग़ालिब

Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:21, 21 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत<ref>उन्माद, पागलपन</ref> ही सही
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही

क़तअ़<ref>तोड़ना</ref> कीजे न तअ़ल्लुक़<ref>रिश्ता</ref> हम से
कुछ नहीं है, तो अ़दावत<ref>दुश्मनी</ref> ही सही

मेरे होने में है क्या रुस्वाई?
ऐ वो मजलिस<ref>जमघट</ref> नहीं ख़िल्वत<ref>एकांत</ref> ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मुहब्बत ही सही

अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो
आगही<ref>चेतना</ref> गर नहीं ग़फ़लत<ref>अचेतना</ref> ही सही

उम्र हरचंद कि है बर्क़-ख़िराम<ref>बिजली की गति से चलने वाली</ref>
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही

हम कोई तर्क़-ए-वफ़ा<ref>निष्ठा का त्याग</ref> करते हैं
न सही इश्क़ मुसीबत ही सही

कुछ तो दे, ऐ फ़लक<ref>आसमान</ref>-ए-नाइन्साफ़
आह-ओ-फ़रिय़ाद की रुख़सत ही सही

हम भी तस्लीम<ref>मान लेने</ref> की ख़ू<ref>ढँग अपनाना</ref> डालेंगे
बेनियाज़ी<ref>उपेक्षा</ref> तेरी आदत ही सही

यार से छेड़ चली जाये, "असद"
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही

शब्दार्थ
<references/>