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जो देश की खातिर बलि चढ़ जाते हैं
वज्र को चबा, समुद्र को सुखा जाते हैं
पत्थरों के साथ भी निभा जाते हैं
बाघ को नोंच, भालू को फाड़ जाते हैं
आकाश के माथे पर झण्डे गाढ़ आते हैं
लोग उन्हें अक्षत रोली लगाते हैं
तालियाँ बजाते हैं, जै-जैकार करते हैं
मैं उन्हें आग चढ़ाता हूँ।
वे जो बिजली को भी पी जाते हैं
वे जो विष की घूँट भी पी जाते हैं
आग की भभक, पानी की छपाक, धूप-तुषार के साथ
जो ज्येष्ठ मास की गर्मी और पौष की सर्दी से भी भिड़ जाते हैं
लोग उनके पाँवों से सिर झुकाते हैं
लोग उनके गले में फूलों की मालाएँ चढ़ाते हैं
मैं उनके हाथों में मशाल देता हूँ,
मैं उनके हाथों में उजाला देता हूँ।
ऊपर चढ़ते हैं, नींचे दौड़ते हैं
पहाड़ियों से गिरते हैं, नदियों में बहते हैं-तप्त लोहा चाट जाते हैं
चिड़ियों जैसे आकाश उड़ते हैं
वे जो दूसरों के लिए ज़िन्दा रहते हैं
मैं उनको अपनी ज़िन्दगी देता हूँ।
दूसरों के दुखों को आग लगा देने को
भेद-भावों को गड्ढे में दफ़ना देने को
उल्टी हवा को जला देने को
राह से भटकों को रास्ता दिखा देने को
मेरी माँ के मन्दिर में स्वयं जा कर
जो बकरी की तरह स्वयं के प्राणोत्सर्ग को प्रस्तुत कर देते हैं,
उनको मैं सूरज का गोला, धरती का फल
चन्द्रमा का चन्दन, फूल का हँसना
और आकाश की चोली चढ़ाऊँगा
मेरी माँ की सेवा करने के लिए जिन्हें
कल तिरंगा थामना है
मैं उनको ज़िन्दगी की दीप-बाती प्रज्वलित कर
अपने गीत-रीतों का छल-बल दे कर
पल-पल, दिन रात उनकी पूजा करूँगा।
मूल कुमाउनीं पाठ : उनरि पुज
जो देशाक् खातिर बलि चढ़नी
बज्जर कैं बुकै समुन्दर कैं सुकै जानी
ढुंग-पाथर दगाड़ लै मिटै जानी
बाघ कैं दाड़ि भालु कैं फाड़ि जानी
अगासाक कपाई में किल गेंठनी
मनखि उनुकैं अच्छयत्-पिठ्यां लगूंनी
ताइ बजूनी जैकार करनी
मैं उनुकैं आग चढूंनूं।
ऊं जो बिजुलि कैं लै पी जानी
ऊं जो बिखक घुटुक घुटुकै जानी
आगक भभक् पाणिक् छपक, घाम-तुस्यारा दगाड़
जो जेठकि रूढ़ पूसैकि सूड़ दगाड़ भिड़ि जानी
मनखि उनार गाव में फूलमाव खितनी
मैं उनार हात में मुच्छयाव द्यूं
मैं उनार हात में उज्याव द्यूं।
उकाव दौड़ूं, हुलार हिटौं
भ्योव घुरयों, गाड़ बगौं-फौड़ि चटौं
चड़-पोथ जस अगास उड़ौं
ऊं जो दुसार हुं ज्यूंन रौनी
मैं उनूंकैं आपणि ज्यान द्यूं
अग्यै द्यूंल कै दु:खन कैं
खड़्यै द्यूंल कै भेद भावन कैं
भड्यै द्यूंल कै उल्टी हाव-बयावन कैं
बाट बतै जूंल कै हिर लालन कैं
मेरि मैया दरबार में आफी जै बेर
जो बकार जास बरकी गईं
उनुकैं मैं सूरजक ग्वव, धर्तिक फव।
चनरमाक चनण, फूलक हंसण
अगासकि चोई चंढ़ूंल
मेरि इजकि स्याव करंण हुं जनुल
भोल हुं तिरंगा थामंण छु
मैं उनुकैं जिन्दीगीक् दि बाई बेर
आपण गीत-रीतोंक् छल-बल दी बेर
घड़ि-घड़ि, दिन-रात उनरि पुल करूंल।