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प्रति क्रांति / प्रज्ञा दया पवार

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दावानल हाथ में लिए
कर्नल निकला
और क्रान्ति के नारों से
भीड़ पर उफ़ान आया

अब रचा जाएगा एक नया इतिहास
हमारे झुलसे चेहरों का
पसीने में डूबे काले रंग का
जीतनेवालों के ख़ून की गर्मी का

रोशनी की आहट से ही थरथराई
बस्ती के हरेक की मोटी चमड़ी
कसी मुठ्ठियाँ
अँधेरे को रौंदते क़दम
गहरी चुभी दुःख की कलगी
कर्नल की आँखों में
सपनों के अंकुर


परली तरफ़
कपट की हँसी
दाँव-पेंच
ख़ून की बूँद तक न गिरा कर
विद्रोह को मसल डालने के
हथियारों को भोंथरा कर
कर्नल को पालतू बनाने के।

हाथीदाँत के पिंजड़े में
कर्नल की क्रांति में
घुन लगी
अब तक बेलगाम सरपट दौड़नेवाले
घोड़े पर
मध्यवर्ग की झालर पहराई


कर्नल अभी भी
बस्ती में आता है
क्रांति के नारों की
धूल सिर्फ़ उड़ती है
बस्ती का हारा हुआ अन्धेरा
सर कटाने का नया सपना देखता है