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लज्जा / भाग १ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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रचनाकार: जयशंकर प्रसाद

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"कोमल किसलय के अंचल में नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी, गोधूली के धूमिल पट में दीपक के स्वर में दिपती-सी। मजुंल स्वप्नों की विस्मृति में मन का उन्माद निखरता ज्यों- सुरभित लहरों की छाया में बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों- वैसी ही माया में लिपटी अधरों पर उँगली धरे हुए, माधव के सरस कुतूहल का आँखों में पानी भरे हुए। नीरव निशीथ में लतिका-सी तुम कौन आ रही हो बढती? कोमल बाँहे फैलाये-सी आलिगंन का जादू पढती किन इंद्रजाल के फूलों से लेकर सुहा-कण-राग-भरे, सिर नीचा कर हो गूँथ माला जिससे मधु धार ढरे? पुलकित कदंब की माला-सी पहना देती हो अंतर में, झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में। वरदान सदृश हो डाल रही नीली किरनों से बुना हुआ, यह अंचल कितना हलका-सा कितना सौरभ से सना हुआ। सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हूँ, मैं सिमिट रही-सी अपने में परिहास-गीत सुन पाती हूँ। स्मित बन जाती है तरल हँसी नयनों में भरकर बाँकपना, प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो वह बनता जाता है सपना मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खौल रहा, अनुराग समीरों पर तिरता था इतराता-सा डोल रहा। अभिलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के स्वागत को, जीवन भर के बल-वैभव से सत्कृत करती दूरागत को।